जिंदगी तो लतीफ़ा न थी,मुस्कुराने की आदत छोड़ दी
रास आया नहीं जब जीना रास्ते में ही किस्मत छोड़ दी
मेहनत की कमाई से ही जब, घर में चूल्हे जल जाते हैं
कदमों पर रख दस्तार कमाएँ, ऐसी वो दौलत छोड़ दी
झूठे वादे झूठी कसमें,कोरे ख्वाबों से दिल क्यों दुखाएं
न हुआ ये तमाशा हमसे हमने अपनी मुहब्बत छोड़ दी
गै़रत से अभी ज़िंदा हैं हम शान से जाएं इस दुनिया से
अब न दिल में कोई ख़्वाहिश सारी ही हसरत छोड़ दी
शहर के चौरस्ते में हमने, मटमैली सी पड़ी पाई चादर
चुपचाप उठाई ओढ़ ली, जब सबने शराफत छोड़ दी
मन कबीर सा अपना बस लिखते रहे अपने मन की
झुलसी हुई बस्तियों में लफ्ज़ों की नज़ाकत छोड़ दी
सुनते आए थे रहमो करम सबको अता होती उनकी
हम पर ही नजर थी न उनकी, हमने इबादत छोड़ दी
💕💕Spaicel thanks💕💕
Write ✎✎ mr. vinod prasad
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Thanks for the visit
एक लेखक होने के नाते हम शुक्रिया अदा करना चाहते हैं
विनोद प्रसाद ji का जिन्होंने अपने खूबसूरत लफ्जों से इन लाइनों को सजाया हैं
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