मैंने कब चाहा में मशहूर हो जाऊं ,, maine kab chaha mai mashoor ho jaun



मैंने कब चाहा मैं मशहूर हो जाऊं
भला अपने ही बसेरे से क्यों दूर हो जाऊं
नसीहत कर रही हैं ना जाने अक्ल कब से
बस इस कलम की दीवानगी से दूर हो जाऊं

कुछ कहते कहते रह जाता हूं
थोड़ा सहते सहते हर दर्द सह जाता हूं
कुछ समझता हूं कुछ समझा जाता हूं
कुछ नासमझी करते करते रह जाता हूं

इस छुपने छुपाने के खेल में
ना जाने कितने रिश्ते डह जाता हूं
ख़्वाब इतना था बस हर रिश्ता समझ जाऊं
मैंने कब चाहा में मशहूर हो जाऊं

ना लिखूं सच तो कैसा आईना हूं मैं

जो बोलूं सच तो चकना चूर हो जाऊं
वक़्त के हाथों ना बिक जाऊं मैं
बस ये तामीर कर रहा हूं
मैंने कब चाहा मैं मशहूर हो जाऊं
बस इतना हैं पहले खुद को मंजूर हो जाऊं 

Writte by 
Zishan alam zisshu
mene kab chaha me mashur ho jau

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