सोचता हूं ... Sochta hun




 सोचता हूं कुछ ना लिखूं
फिर सोचता हूं क्यों ना लिखूं
सोचता हूं महज़ आखरी बार लिखूं
मगर जब जब इस कलम की दीवानगी 
सताती हैं मुझे
फिर सोचता हूं बार बार लिखूं

सोचता हूं कुछ नए तरिके से लिखूं
तन्हाइयों से गहरा समझौता करके लिखूं
सोचता हूं नए नए अक्षर लिखूं
फिर सोचता हूं रफ्ता रफ्ता बरस के लिखूं

सोचता हूं किसी के ज़ुल्फो के कसीदे लिखूं
या किसी के बहते हुए जज़्बात लिखूं
सोचता हूं हर शख़्स की मुज़बानी लिखूं
ऐसी कोई रूहानी कहानी लिखूं
फिर सोचता हूं बार बार लिखूं
हर बार लिखूं
हज़ार बार लिखूं

Written by 
Zishan alam zisshu 

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