सोचता हूं कुछ ना लिखूं
फिर सोचता हूं क्यों ना लिखूं
सोचता हूं महज़ आखरी बार लिखूं
मगर जब जब इस कलम की दीवानगी
सताती हैं मुझे
फिर सोचता हूं बार बार लिखूं
सोचता हूं कुछ नए तरिके से लिखूं
तन्हाइयों से गहरा समझौता करके लिखूं
सोचता हूं नए नए अक्षर लिखूं
फिर सोचता हूं रफ्ता रफ्ता बरस के लिखूं
सोचता हूं किसी के ज़ुल्फो के कसीदे लिखूं
या किसी के बहते हुए जज़्बात लिखूं
सोचता हूं हर शख़्स की मुज़बानी लिखूं
ऐसी कोई रूहानी कहानी लिखूं
फिर सोचता हूं बार बार लिखूं
हर बार लिखूं
हज़ार बार लिखूं
Written by
Zishan alam zisshu
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें
(
Atom
)
कोई टिप्पणी नहीं