नफरत के इस दौर में जीना मुश्किल हो गया Nafrat k is dour me jeena mushkil ho gya
अब तो अहताज़ाज करना लाज़मी हो गया
हर शाख पर उल्लू बैठा है
हर गद्दी पर बैठा शख्स गद्दार हो गया
नफरत के इस दौर में जीना मुश्किल हो गया
अंधेरे को मिटाना है कहकशा की रोशनी से
मोमबत्तियों से कुछ न होगा
अब तो मशाल जलाना बाक़ी रह गया
नफरत के इस दौर में जीना मुश्किल हो गया
ज़ुल्म खिलाफ सदा लड़ने वाले हम
तारिखियों में कही गुम न होने वाले हम
हमारी पहचान सदा बताने वाली वो इमारते
लालकिला ताजमहल और चार मीनारे
नफरत के इस दौर में जीना मुश्किल हो गया
नफरत बची हैं कुछ सियासी लंगूरों के अंदर
सदाक़त नही जानते हमारी वो कुंगर
कोई जाकर उनको बताए ऐ आलम
हम रहे हैं हमेशा से इस मुल्क के सिकंदर
नफरत के इस दौर में जीना मुश्किल हो गया
Written by
Zishan alam zisshu
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